सुरेंद्र मुनोत, स्टेट चीफ रिपोर्टर, पश्चिम बंगाल
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आचार्य श्री महाप्रज्ञ जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
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प्रज्ञा के भंडार आचार्य महाप्रज्ञ जी-मुनि कमलकुमार
29 जून 19
संसार मे आने वाले को एक दिन निश्चित जाना पड़ता है। परन्तु जो व्यक्ति अपनी कर्मजा शक्ति का जागरण कर कुछ करिश्मा दिखा जाते है। वे जन-जन के दिल-दिमाग मे अपना स्थान बना लेते हैं, ऐसे ही महापुरुष थे आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी।
आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म का नाम नथमल था। उनका जन्म झुंझनु जिले के टमकोर गाँव में तोलाराम जी चोरड़िया के घर माता बालू जी की कुक्षी से हुआ था, बाल्यकाल से आप प्रतिभावान थे। मात्र ढाई वर्ष की आयु में ही आपके पिता श्री का देहावसान हो गया। परिवार में आजीविका की समस्या हो गई। आपका शैशव काल खींवसर के बच्छावत परिवार में व्यतीत हुआ। ननिहाल वालों ने नथमल की हर तरह से सुरक्षा की। लम्बे समय तक गाय के दूध से उदरपूर्ति का क्रम रहा। ताकि बालक का दिमाग तेजस्वी बना रहे।
बड़े होने पर पारिवारिक जन टमकोर ले आए वहाँ प्रवासित मुनि छबील जी, मुनि मूलचंद जी का ध्यान बालक नथमल की तरफ केंद्रित हो गया औऱ प्रारंभिक ज्ञान करवाया। जिससे बालक के मन मे वैराग्य भावना का जागरण हुआ। मुनिद्वय की प्रेरणा से तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य के दर्शन गंगाशहर में किये। प्रथम दर्शन औऱ प्रवचन से नथमल का वैराग्य औऱ अधिक पुष्ट हुआ औऱ प्रतिक्रमण का आदेश भी मिल गया।
पूज्य कालूगणी गंगाशहर चातुर्मास के पश्चात सरदारशहर मर्यादा महोत्सव के लिए पधार रहे थे। उस समय नथमल ने माता बालू जी के साथ भादासर में गुरुदेव के दर्शन किये औऱ दीक्षा की अर्जी की। पूज्य गुरुदेव ने नथमल को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान कर दी परन्तु माता को अनुमति नही मिली।नथमल ने आग्रह किया कि माता को भी दीक्षा की स्वीकृति प्रदान करावें, कालूगणी ने फरमाया की अभी केवल तुम्हें ही अनुमति दी है, परन्तु नथमल के विनम्र निवेदन पर गौर करते हुए मां बेटे दोनो को अनुमति मिल गई।
सरदारशहर में भंसालीजी के बाग में आप की दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के पश्चात पूज्यवर ने मुनि तुलसी के पास वंदना करवा दी। मुनि तुलसी के कुशल अनुशासन में आपका अध्ययन, अध्यापन चला। मुनि तुलसी जब आचार्य बनें आपको उनकी सेवा का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। कहा भी जाता है “जैसा संग वैसा रंग” यह युक्ति पूर्ण सत्य चरितार्थ हुई औऱ आप आचार्य श्री तुलसी के सक्षम पट्टधर बने।
आपकी विनम्रता, विद्वता, सरलता, समर्पण, गुरु भक्ति, आचार निष्ठा अनुत्तर थी। इन्हीं गुणों को देख कर गुरुदेव तुलसी ने अपने रहते ही अपना आचार्य पद विसर्जन कर आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। तेरापंथ धर्म संघ के लिए यह प्रथम घटना थी।
आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान औऱ जीवन विज्ञान के द्वारा व्यक्तित्व निर्माण का महनीय कार्य कर जैन-अजैन सबको शांतिमय जीवन जीने की कला सिखाई। अनेक आगमों का सम्पादन कर अनेक पुस्तकें लिखकर संसार की जटिल समस्याओं का समाधान प्रदान किया। जिसे युग नही शताब्दियाँ याद करेगी।
R.k.jain, editor in chief
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